top of page

Shree Bhaktamar Stotra

Updated: Sep 21, 2020

भक्तामर-प्रणत-मौलिमणि-प्रभाणा मुद्द्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम्। सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।१। bhaktāmara-praṇata-maulimaṇi-prabhāṇā muddyotakaṃ dalita-pāpa-tamovitānam। samyak praṇamya jinapādayugaṃ yugādā vālambanaṃ bhavajale patatāṃ janānām ।1। कर्मभूमि के प्रारम्भ में, भूख-प्यास से पीड़ित प्रजा को, जिन्होंने उसक निवारण का मार्ग दिखाया और धर्म का उपदेश देकर पाप के प्रसार को रोका, भक्ति युक्त देवों ने आकर चरण-कमलों में नमस्कार किया। उनके चरणों के नखों की कान्ति से देवों के मस्तक के मुकुटों में लगी हुई मणियाँ और भी अधिक चमकने लगती थी‌‌। ऐसे प्रथम जिनेन्द्र ऋषभदेव के चरणों में प्रणाम करके मैं उनकी स्तुति करूँगा।

यः संस्तुतः सकल-वाड्मय तत्त्व बोधा दुद्भभूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्रैर्जगत्रितय - चित्तहरैरुदारै संतोष किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।२। yaḥ sanstutaḥ: sakala-vāḍmaya tattva bodhā dudbhabhūtabuddhipaṭubhiḥ suralokanāthaiḥ । stotrairjagatritaya - cittaharairudārai santoṣa kilāhamapi taṃ prathamaṃ jinendram ।2।

समस्त शास्त्रों के तत्वज्ञान से उत्पन्न हुई निपुण बुद्धि से अतीव चतुर बने हुए देवेन्द्रों ने तीन लोक के चित्त को हरण करने वाले ,अनेक प्रकार के गम्भीर एवं विशाल स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की है, आश्चर्य है! उन प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभप्रभु की स्तुति मैं भी करूँगा। सभी तीर्थंकर अरिहंत पद पर रहते हुए तीर्थ की आदि करते हैं, अतः प्रथम जिनेश्वर कहकर समस्त अरिहंत परमात्मा की स्तुति भक्तामर में गई हैं। बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ स्तोतुं समुद्यत मतिर् विगत-त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल संस्थित मिन्दुबिम्ब - मन्य: क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ।३। buddhayā vinā'pi vibudhārcita pādapīṭha stotuṃ samudyata matir vigata-trapo'ham। bālaṃ vihāya jala sansthita mindubimba - manya: ka icchati janaḥ sahasā grahītum ।3। मैं (मानतुंग आचार्य) बुद्धि विहीन(अल्प बुद्धि), होकर भी जिनके पादपीठ (चौकी) की पूजा देवगण करते है, ऐसे जिनेन्द्र देव! आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ हूँ। यह मेरी बाल-चेष्टा है, क्योंकि जल में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक के सिवाय पकड़ने की अन्य कौन चेष्टा कर सकता है? अर्थात् कोई भी नहीं । उसी प्रकार आपके अगम्य गुणों का वर्णन करने का प्रयास बाल लीला के समान ही है।

वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र! शशांककान्तान कस्ते क्षमः सुरगुरू प्रतिमोऽपि बुद्धया? कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।४। vaktuṃ guṇān guṇasamudra! śaśāṅkakāntāna kaste kṣamaḥ suragurū pratimo'pi buddhayā? kalpānta-kāla-pavanoddhata-nakra-cakraṃ ko vā tarītumalamambunidhiṃ bhujābhyām ।4। हे गणु सिन्धु! देवों के गुरू बृहस्पति के समान बुद्धि वाले भी आपके चन्द्रमा के सदृश्य कांति वाले उज्जवल गुणों को कहने में समर्थ नहीं है, तो अन्य कौन समर्थ है? जैसे प्रलय काल के प्रचण्ड पवन से उछलते हुए मगरमच्छों से युक्त समुद्र को दो भुजाओं से तैरने के लिए कौन पुरुष समर्थ हो सकता है? अर्थात् कोई भी नहीं। सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान् मुनीश ! कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृत्तः। प्रीत्याऽऽत्म-वीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्र नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम्।५। so'haṃ tathāpi tava bhaktivaśān munīśa ! kartuṃ stavaṃ vigata-śakti-rapi pravṛttaḥ। prītyā''tma-vīryamavicārya mṛgo mṛgendra nābhyeti kiṃ nija-śiśoḥ paripālanārtham।5। हे मुनीश! वही मैं, आपका भक्त शक्ति नहीं होने पर भी भक्ति के वश आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ हूँ, जैसे हिरणी समर्थ नहीं होने पर भी वात्सल्य वश अपने शिशु का रक्षण करने के लिए सिंह का सामना करती है।

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास धाम त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम्। यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चान-चारु-कलिकानिकरैकहेतुः।६। alpaśrutaṃ śrutavatāṃ parihāsa dhāma tvadbhaktireva mukharī kurute balānmām। yatkokilaḥ kila madhau madhuraṃ virauti taccāna-cāru-kalikānikaraikahetuḥ।6। है भगवान! जैसे वसन्त ऋतु में आम्र की मंजरी का निमित्त पाकर कोयल मधुर गाती है, वैसे ही मैं भी आपकी भक्ति के वशीभूत होकर आपकी स्तुति करने हेतु वाचाल हो रहा हूँ। अन्यथा मैं तो अल्पज्ञानी हूँ और ज्ञानियों के सामने उपहास का पात्र हूँ।

त्वत्संस्तवेन भव संतति सन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर-भाजाम् । आक्रान्त-लोक मलिनीलमशेष-माशू- सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वर-मन्धकारम्॥७। tvatsanstavena bhava santati sannibaddhaṃ pāpaṃ kṣaṇātkṣayamupaiti śarīra-bhājām । ākrānta-loka malinīlamaśeṣa-māśū- sūryāñśubhinnamiva śārvara-mandhakāram॥7। जैसे अमावस की रात्रि का समस्त लोक में फैला हुआ  भ्रमर के समानकाले रंग वाला घोर अंधकार सूर्य की किरणों से शीघ्र समूल नष्ट होजाता है, वैसे ही अहो प्रभु! आपकी स्तुति करने से देहधारियों के अनेक भवों के संचित अर्थात्बंधे हुए  पाप क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं।

मत्वेति नाथ! तव  संस्तवनं मयेद- मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात्। चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु मुक्ताफल-द्युति मुपैति ननूद-बिन्दुः ।८। matveti nātha! tava  sanstavanaṃ mayeda- mārabhyate tanudhiyāpi tava prabhāvāt। ceto hariṣyati satāṃ nalinī-daleṣu muktāphala-dyuti mupaiti nanūda-binduḥ ।8। हे नाथ! मुझ अल्पज्ञ द्वारा रचित यह साधारण स्तोत्र भी आपके प्रभाव से सज्जन पुरूषों के मन को अवश्य ही हरण करेगा, जैसे कमलिनी के पत्तों पर पडती हुई जल की बूँद भी उन पत्तों के और सूर्य किरण के प्रभाव से मोती के समान शोभा पाती है।

आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोष, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति। दूरे सहस्त्र किरणः कुरुते प्रभैव- पद्माकरेषु जलजानि विकास-भांजि ।९। āstāṃ tava stavana-masta-samasta-doṣa, tvatsaṅkathāpi jagatāṃ duritāni hanti। dūre sahastra kiraṇaḥ kurute prabhaiva- padmākareṣu jalajāni vikāsa-bhāñji ।9। हे अशरण शरणनाथ! सूर्योदय होना तो दूर रहा, परन्तु उसकी अरूण-प्रभा ही सरोवरों के कमलों को खिला देती है। उसी प्रकार हे भगवन्! आपके निर्दोष स्तवन करने का क्या महत्त्व बताऊँ? आपके नाम का केवल उच्चारण हीसंसारी जीवों के समस्त पापों का विनाश कर देता है। अर्थात् सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका पवित्र कीर्तन तो बहुत दूर की बात है, मात्र आपकी चरित्र-चर्चा ही जब प्राणियों के पापों को नष्ट कर देती है, तब स्तवन की अचिन्त्य शक्ति का तो कहना ही क्या?

नात्यद्भभुतं भुवन-भूषण! भूतनाथ! भूतै-र्गुणै-्भुवि भवन्त- मभिष्टुवन्तः। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वाः भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।१०। nātyadbhabhutaṃ bhuvana-bhūṣaṇa! bhūtanātha! bhūtai-rguṇai-bhuvi bhavanta- mabhiṣṭuvantaḥ। tulyā bhavanti bhavato nanu tena kiṃ vāḥ bhūtyāśritaṃ ya iha nātmasamaṃ karoti ।10। हे जगतभूषण ! संसार में जो स्वामी अपने आश्रित सेवक को वैभव देकर अपने जैसा समृद्ध नहीं बनाता, उस स्वामी की सेवा से सेवक को क्या लाभ है? कुछ भी नहीं, किन्तु हे भुवन भूषण! हे जगन्नाथ! जो भव्य पुरुष आपकी स्तुति करते हैं, वे आपके ही सदृशहो जाते हैं, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है।

दृष्टवा भवन्त-मनिमेष-विलोकनीयं नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः। पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धोः

क्षारं जलं जल-निधेरसितुं क इच्छेत्।११।

dṛṣṭavā bhavanta-manimeṣa-vilokanīyaṃ nānyatra toṣamupayāti janasya cakṣuḥ। pītvā payaḥ śaśikara-dyuti-dugdha-sindhoḥ kṣāraṃ jalaṃ jala-nidherasituṃ ka icchet।11।

चन्द्र-किरणों के समान कांति वाले क्षीर सागर का दुग्ध के समान मधर जल का पान करके कौन पुरुष लवण समुद्र के खारे जल को पीने की इच्छा करेगा? कोई भी पीना नहीं चाहेगा। वैसे ही हे भगवन्! जो पुरुष अपलक दृष्टि से आपको एक बार अच्छी तरह से देख लेता हैं, उसकी दृष्टि फिर अन्य देवो मे संतोष प्राप्त नहीं करती है।

यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं . नर्मापित-स्त्रिभुवनैक-ललामभूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां- यत्ते समान-मपरं न हि रूपमस्ति ।१२। yaiḥ śānta-rāga-rucibhiḥ paramāṇubhistvaṃ . narmāpita-stribhuvanaika-lalāmabhūta । tāvanta eva khalu te'pyaṇavaḥ pṛthivyāṃ- yatte samāna-maparaṃ na hi rūpamasti ।12। तीनों लोक में अद्वितीय सुन्दर रूप के धारक भगवान ! शान्त-रस की कान्ति वाले जिन मनोहर परमाणुओं से आपके शरीर का निर्माण हुआ है, वे परमाणु इस लोक में बस उतने ही थे। क्योंकि अधिक होते तो आप जैसा रूप औरों का भी दिखाई देता,यही कारण है कि, संसार में आपके समान, अन्य कोई सुन्दर रूप वाला व्यक्ति दिखाई नहीं देता है।

वक्त्रं क्व ते सुर-नरो-रग-नेत्रहारी नि:शेष निर्जित जगत् - त्रितयोपमानम्। बिम्बं कलंक मलिनं क्व निशाकरस्य यद्वासरे भवति पाण्डु पलाश-कल्पम्।१३। vaktraṃ kva te sura-naro-raga-netrahārī ni:śeṣa nirjita jagat - tritayopamānam। bimbaṃ kalaṅka malinaṃ kva niśākarasya yadvāsare bhavati pāṇḍu palāśa-kalpam।13। हे भगवन्! देवों, मनुष्यों और नागकुमारो के नेत्रों को आकर्षित करने वाला और तीनों लोकों की समस्त श्रेष्ठ उपमाओं को जीतने वाला आपका सुन्दर मुख कहाँ ? और कलंक से मिलन बना हुआ चंद्रबिंब कहाँ? क्योंकि चंद्रबिंब तो दिन में ढाक के सूखे पत्ते के सदृश फीका हो जाता है और जो मृग के चिन्ह से भी मलिन है, किन्तु आपका मुख निर्मल और सदा ही प्रकाशमान रहता है

संपूर्ण मण्डल-शशांक-कला-कलाप शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति। ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर - नाथ-मेकं, कस्तान‌् निवारयति संचरतो यथेष्टम्।१४। sampūrṇa maṇḍala-śaśāṅka-kalā-kalāpa śubhrā guṇāstribhuvanaṃ tava laṅghayanti। ye sañśritās trijagadīśvara - nātha-mekaṃ, kastāna‌ nivārayati sañcarato yatheṣṭam।14। हे त्रिलोक के स्वामी! पूर्णिमा के चन्द्रमण्डल की कलाओं के समान आपके अत्यन्त उज्जवल गुण तीनों | लोको में व्याप्त हैं। अर्थात् तीन लोक में फैले हुए हैं क्योंकि जो गुण एक अर्थात् अद्वितीय स्वामी के आश्रय में रहे हुए हैं उन्हें इच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने से कौन रोक सकता है? अर्थात् कोई भी नहीं रोक सकता।

चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांग नाभिर् - नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम्। कल्पान्त - कालमरूता चलिता चलेन - किं मन्दराद्रि शिखरं चलितं कदाचित।१५। citraṃ kimatra yadi te tridaśāṅga nābhir - nītaṃ manāgapi mano na vikāra mārgam। kalpānta - kālamarūtā calitā calena - kiṃ mandarādri śikharaṃ calitaṃ kadācita।15। हे वीतरागी भगवान। स्वर्ग की सुन्दर अप्सराओं ने अपने हाव भाव-विलास के द्वारा आपको विचलित करने का भरसक प्रयत्न किया, किंतु आपका चित्त जरा-सा भी विचलित नहीं हुआ, सो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। प्रलयकाल का प्रचण्ड पवन बड़े बड़े पर्वतों को चलायमान कर देता है, परन्तु क्या कभी वह सुमेरू के शिखर को कम्पित कर सकता है? कदापि नहीं।

निधूम - वर्तिरपवर्जित-तैलपूरः कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि । गम्यो न जातु मरूतां चलिता-चलानाम् दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत् प्रकाशः ।१६। nidhūma - vartirapavarjita-tailapūraḥ kṛtsnaṃ jagattrayamidaṃ prakaṭī-karoṣi । gamyo na jātu marūtāṃ calitā-calānām dīpo'parastvamasi nātha! jagat prakāśaḥ ।16। अहो नाथ! आप अद्वितीय अपूर्व दीपक हैं, जिसमें क्षायिक केवलज्ञान की शाश्वत अखण्ड ज्योति के परिप्रेक्ष्य में तीन लोकों के समस्त पदार्थ एक साथ अपनी द्रव्य गुण पर्यायों से युक्त स्वयमेव प्रकाशमान है। आपका जीवन राग से नहीं, बल्कि वीतरागता के चैतन्य प्राणों से देदीप्यमान है। आप अपने में परिपूर्ण शुद्ध और एक होने से किसी पर वस्तु की अपेक्षा नहीं रखते, अव्याबाध सुख-प्राप्ति हेतु सांसारिक विषमताएं बाधा पहुंचाने में समर्थ नहीं है। अतएव आप लौकिक दीपक से सर्वथा भिन्न एक अलौकिक स्व-पर-प्रकाशक, अविनाशी अपूर्व चिन्मय दीपक हैं।

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति। नाम्भोधरोदर निरूद्ध महाप्रभाव: सूर्यातिशायि महिमासि मुनीन्द्र लोके।१७। nāstaṃ kadācidupayāsi na rāhugamya:, spaṣṭīkaroṣi sahasā yugapajjaganti। nāmbhodharodara nirūddha mahāprabhāva: sūryātiśāyi mahimāsi munīndra loke।17। हे मुनीश्वर? आप नभ सूर्य से भी अधिक विलक्षण महिमा शाली सूर्य हो। सूर्य प्रतिदिन उदित होता है और संध्या के समय अस्त हो जाता है, किन्तु आपका केवलज्ञानरूपी सूर्य सदैव प्रकाशमा रहता है। सूर्य को राहु ग्रसित कर लेता है, किन्तु आपके ज्ञान आलोक को कोई भी दुष्कृत रूप राहु ग्रसित नहीं कर सकता। सूर्य सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है और वह भी क्रम-क्रम से, किन्तु आप तो तीन जगत् को एक साथ केवल ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते हैं, आपके महाप्रभाव को संसार का कोई भी पदार्थ अवरूद्ध नहीं कर सकता। अर्थात आपका ज्ञानावरणीय कर्म नष्ट हो जाने से आप अतिशय महिमा काली सूर्य हो।

नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं गम्यं न राह-वदनस्य न वारिदानाम्। विभ्राजते तव मुखाब्ज - मनल्पकान्ति विद्योतय-ज्जगदपूर्व शशांक बिम्बं।१८। nityodayaṃ dalita-moha-mahāndhakāraṃ gamyaṃ na rāha-vadanasya na vāridānām। vibhrājate tava mukhābja - manalpakānti vidyotaya-jjagadapūrva śaśāṅka bimbaṃ।18। हे भगवान! आपका मुख कमल विलक्षण चन्द्रमा है। नभ का चन्द्र तो केवल रात्रि में ही उदित होता है, किन्तु आपका मुख-चन्द्र सदा ही उदयमान होता है। चन्द्रमा थोड़े से क्षेत्र के बाह्य अंधकार को नष्ट करता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र मोहरूपी आंतरिक घोर अंधकार का विनाशक है। और मेघ भी उसे आच्छादित कर देते है, परन्तु आपके मुखरूपी चन्द्र को अज्ञानरूपी अन्धकार आच्छादित नहीं कर सकता, और दृष्कृतरूपी राहु ग्रसित नहीं सकता। चन्द्रमा पृथ्वी के कुछ भाग को ही प्रकाशित करता है। किन्तु आपका मुख चन्द्र सम्पूर्ण लोक को प्रकाशमान करता है। नभ का चन्द्र अल्पकान्ति का धारक, होने से हानि-वृद्धिमय है किन्तु आपका मुख-चन्द्र सदा अनन्त कांति का है। अतः आपका मुख-चन्द्र एक अपूर्व अलौकिक चन्द्र है।

किं शर्वरीषु शशिनान्हि विवस्वता वा युष्मन् मुखेन्दु दलितेषु तमस्सु नाथ! निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव लोके कार्यं कियज्जलधरै-र्जलभर- नम्रै ।१९॥ kiṃ śarvarīṣu śaśinānhi vivasvatā vā yuṣman mukhendu daliteṣu tamassu nātha! niṣpanna-śāli-vana-śālini jīva loke kāryaṃ kiyajjaladharai-rjalabhara- namrai ।19॥ हे स्वामी! आपके मुखरूपी चन्द्रमा से पापरूपी अन्धकार के नष्ट हो जाने पर दिन में सूर्य के प्रकाश की और रात्रि में चंद्रमा से क्या प्रयोजन है? क्योंकि संसार में देखा जाता है कि खेतों में धान्य के पक जाने पर पानी से भरे हुए बादलों का क्या प्रयोजन रहता है? अर्थात् कुछ भी

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं नैव तथा हरिहराषिदु नायकेषु। तेजः स्फुरन् मणिषु याति यथा महत्त्वं नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि।२०। jñānaṃ yathā tvayi vibhāti kṛtāvakāśaṃ naiva tathā hariharāṣidu nāyakeṣu। tejaḥ sphuran maṇiṣu yāti yathā mahattvaṃ naivaṃ tu kāca śakale kiraṇākule'pi।20। अहो प्रभु! अनन्त पर्यायात्मक पदार्थों को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान आपमें पूर्ण रूप से सुशोभित हो रहा है, वैसा हरि अर्थात् विष्णु, हर अर्थात् महेश, ब्रह्मा और अन्य नायकों में, अर्थात् लौकिक देवों में नहीं होता है। क्योंकि जैसा प्रकाश स्फुरायमान ममियों में गौरव को प्राप्त होता है, वैसा सूर्य किरणों से चमकने वाले काँच के टुकड़ों का नहीं होता है।

मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा दृष्टेषु येषु हृदयं त्वपि तोषमेति । के वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य : कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपे | २१| manye varaṃ hari-harādaya eva dṛṣṭā dṛṣṭeṣu yeṣu hṛdayaṃ tvapi toṣameti । ke vīkṣitena bhavatā bhuvi yena nānya : kaścinmano harati nātha bhavāntare'pe | 21| हे नाथ! मैं मानता हूं कि-मैंने हरिहरादिक देवों के पहले ही देख लिया, यह मेरे लिए अच्छा ही हुआ। क्योंकि उन्हें देख लेने के बाद मेरा हृदय आपके दर्शन करके संतुष्ट हो गया है। अब भावान्तर (अगले जन्म) में भी मेरे हृदय को अन्य कोई सारगी देव देवी आकर्षित नहीं कर सकेगा।

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् - नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र रश्मिम्, प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम्।२२। strīṇāṃ śatāni śataśo janayanti putrān - nānyā sutaṃ tvadupamaṃ jananī prasūtā। sarvā diśo dadhati bhāni sahasra raśmim, prācyeva dig janayati sphuradañśujālam।22। हे मरूदेवी-नाभिनन्दन! संसार में सैकड़ों स्त्रियाँ सैकडों पुत्रों को जन्म देती है, किन्तु आपके समान महाप्रतापी पुत्ररत्न को अन्य किसी माता ने जन्म नहीं दिया। वैसे तो सभी दिशाएं अनेक ताराओं को धारण करती है, किन्तु प्रकाशमान सूर्य को केवल एक पूर्व दिशा ही उदित (प्रकट) करती है।

त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात्। त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु नान्यःशिवःशिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः।२३। tvāmāmananti munayaḥ paramaṃ pumānsa mādityavarṇamamalaṃ tamasaḥ purastāt। tvāmeva samyagupalabhya jayanti mṛtyu nānyaḥśivaḥśivapadasya munīndra! panthāḥ।23। हे मुनीश्वर! मुनिजन आपको सूर्य के समान तेजस्वी, राग-द्वेष आदि से रहित निर्मल और अज्ञानरूपी अंधकार से विमुक्त परम श्रेष्ठ पुरुष मानते हैं। जो लोग निर्मल हृदय से भलीभाँति आपकी उपासना करते हैं, वे मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, अतः आपको छोड़कर मोक्ष पद का दूसरा कल्याणकारी मार्ग दिखाने वाला अन्य कोई नहीं हैं।

त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य-मसंख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वर-मनन्त-मनंग-केतुम्।। योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकम् ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्तः।२४॥ tvāmavyayaṃ vibhumacintya-masaṅkhyamādyaṃ, brahmāṇamīśvara-mananta-manaṅga-ketum।। yogīśvaraṃ vidita-yoga-maneka-mekam jñāna-svarūpa-mamalaṃ pravadanti santaḥ।24॥ हे नाथ! सन्त पुरूष आपको अव्यय (अनन्तज्ञानादिस्वरूप होने से अक्षय विभु (परमैश्वर्यशाली अथवा ज्ञान की अपेक्षा व्यापक), अचिन्त्य (चिन्तवन में नहीं आने वाले, अर्थात पूर्ण रूप से न जान सकने रूप), असंख्य (आपके गुणों की संख्या नहीं) आद्य (आदि तीर्थंकर), ब्रह्मा (मोक्ष मार्ग का सच्चा विधान करने वाले), ईश्वर (कृतकृत्य अर्थात् समस्त आत्माविभूति के स्वामी या तीन लोक के नाथ), अनन्त (जिसका अनन्त न हो, अविनश्वर, अर्थात् अनन्त चतुष्टय सहित), अनंगकेतु (शरीर रहित या अनुपम सुन्दर, अर्थात् कामदेव के नाश करने के लिये केतु रूप), योगीश्वर (योगियों के ईश्वर), विदीतयोग (ज्ञान-दर्शन- चरित्र रूप योग के जाने वाले)। अनेक (अनन्त गुण पर्याय की अपेक्षा से), एक (अद्वितीय), ज्ञानस्वरूप (केवल ज्ञानस्वरूप) और कर्ममल रहित होने से अमल निर्मल कहते

बद्धस्त्वमेव विबुधार्चितऽ! बुद्धि-बोधात, त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय-शंकरत्वात्। धाताऽसि धीरऽ! शिवमार्ग विधेर् विधानात् व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि।२५। baddhastvameva vibudhārcita'! buddhi-bodhāta, tvaṃ śaṅkaro'si bhuvanatraya-śaṅkaratvāt। dhātā'si dhīra'! śivamārga vidher vidhānāt vyaktaṃ tvameva bhagavan! puruṣottamo'si।25। हे प्रभु। आपके केवलज्ञान की गणधरों ने अथवा देवों ने पूजा की है, अतः आप ही 'बुद्धदेव' हैं। आप लोकत्रयवर्ती जीवों का आत्म कल्याण करने वाले हैं, इसलिए आप ही 'शंकर' है। हे धीर, आपने रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग का सत्यार्थ उपदेश दिया हैं, अतःआप ही विधाता - 'ब्रह्मा' हैं। हे भगवान! उपरोक्त गुणों से विभुषित होने के कारण आप ही साक्षात् पुरुष श्रेष्ठ 'श्रीकृष्ण' हैं, अर्थात् बुद्ध, शंकर (महादेव), ब्रह्मा और श्रीकृष्ण आदि को संसारी जीव देवों के नाम से पुकारते हैं, परन्तु अद्वितीय लोकोत्तर गुणों से विभूषित होने के कारण आप ही सच्चे देव हैं।

तुभ्यं नम त्रिभुवनार्तिहराय नाथ! तुभ्यं नमः क्षितितलामल-भूषणाय। तुभ्यं नमस्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन भवोदधि शोषणाय ।२६। tubhyaṃ nama tribhuvanārtiharāya nātha! tubhyaṃ namaḥ kṣititalāmala-bhūṣaṇāya। tubhyaṃ namasrijagataḥ parameśvarāya, tubhyaṃ namo jina bhavodadhi śoṣaṇāya ।26। हे भगवन् ! तीन लोकों की पीड़ा हरने वाले आपको नमस्कार है। हे भूमण्डल के निर्मल आभूषण! आपको नमस्कार है। तीन जगत् के परमेश्वर! आपको नमस्कार है। हे जिनेन्द्र! भव सागर को सुखाने वाले अर्थात जीवों को मोक्ष पहुँचाने वाले! आपको नमस्कार है।

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस् त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! दोषो-रूपात्त-विविधाश्रय-जातगर्वैः स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचित्-पीक्षितोऽसि।२७। ko vismayo'tra yadi nāma guṇairaśeṣais tvaṃ sañśrito niravakāśatayā munīśa! doṣo-rūpātta-vividhāśraya-jātagarvaiḥ svapnāntare'pi na kadācit-pīkṣito'si।27। हे मुनीश्वर! समस्त सद्गणों ने आपमें सघन आश्रय पाया है। अतएव दोषों को आपमें जरासा भी स्थान नहीं मिला। फलस्वरूप वे अन्य अनेक देवताओं में स्थान प्राप्त करके गर्व को प्राप्त हो गये हैं। फिर भी वे स्वप्न में भी कभी आपको देखने नहीं आया है इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है? जिसे अन्यत्र आदर मिलेगा, वह भला आश्रय न देने वाले व्यक्ति के पास लौटकर क्यों आयेगा? आपमें दोष तो नाम मात्र भी नहीं है। आप तो गुणपूँज हैं।

उच्चैरशोक-तरु-संश्रित-मुन्मयूख माभाति रूप-ममलं भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति।।२८॥ uccairaśoka-taru-sañśrita-munmayūkha mābhāti rūpa-mamalaṃ bhavato nitāntam। spaṣṭollasat-kiraṇa-masta-tamo-vitānaṃ bimbaṃ raveriva payodhara-pārśvavarti।।28॥ १. अशोक वृक्ष प्रातिहार्य है वीतराग प्रभो समवसरण मे ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान प्रकाशमान और ऊपर की ओर फैली हुई किरणों वाला आपका निर्मल स्वरूप ऐसा भव्य प्रतीत होता है, जैसे कि चमकती हुई किरणों वाला एवं अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाला सूर्य का बिम्ब सघन मेघों के समीप शोभित होता है। भगवान ऋषभदेव की काया कंचनवर्ण सूर्य बिम्ब के सदृश है और अशोक वृक्ष मेघ के सदृश नीलवर्ण-वक्त है। अशोक वृक्ष के सानिध्य से ऋषभदेव का स्वतः तेजस्वी रूप और अधिक तेजस्वी दिखाई देने लगता है।

सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्। बिम्बं वियद् विलसदंशुलता-वितानंम् तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्त्र रश्मेः।२९। siṅhāsane maṇi-mayūkha-śikhā-vicitre, vibhrājate tava vapuḥ kanakāvadātam। bimbaṃ viyad vilasadañśulatā-vitānamm tuṅgodayādri śirasīva sahastra raśmeḥ।29 २. स्फटिक सिंहासन प्रातिहार्य अहो भगवन! जिस प्रकार ऊँचे उदयाचल पर्वत के शिखर पर आकाश में प्रकाशमान किरणरूपी लताओं के विस्तार से युक्त सूर्य का बिम्ब शोभा को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जड़े हुए बहुमूल्य रत्नों की किरण प्रभा से शोभित ऊँचे सिंहासन पर आपका स्वर्ण के समान देदीप्यमान स्वच्छ शरीर शोभा को प्राप्त हो रहा है।

कुन्दावदात-चल-चामरचारूशोभम्, विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कान्तम्। उद्यच्छशांक-शुचि-निर्झर-वारिधार मुच्चै स्तटं सुरगिरेरिव शांतकौम्भम्।३०। kundāvadāta-cala-cāmaracārūśobham, vibhrājate tava vapuḥ kaladhauta-kāntam। udyacchaśāṅka-śuci-nirjhara-vāridhāra muccai staṭaṃ suragireriva śāntakaumbham।30। ३. चँवर प्रातिहार जैसे उदित होते हुए चन्द्रमा के समान झरनों की निर्मल जलधाराओं से सुमेरू का सुवर्णमयी ऊँचा शिखर शोभा पाता है, वैसे ही देवताओं के द्वारा दोनों ओर ढुराये जाने वाले कुन्द पुष्प के सदृश्य श्वेत चॅवरों की सुन्दर शोभा युक्त आपका स्वर्ण कान्ति वाला दिव्य देह भी अत्यन्त सुन्दर शोभा को प्राप्त हो रहा है। सुवर्णमय सुमेरू पर्वत के दोनों तरफ मानो निर्मल जल वाले दो झरने झरते हों, इस प्रकार से भगवान के सवर्ण शरीर के दोनों ओर उज्ज्वल चँवर ढुरते है

छत्रत्रयं तव विभाति शशांक-कान्त मुच्चैः स्थितं स्थगित-भानुकर-प्रतापम्। मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्ध-शोभम् प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्।३१। chatratrayaṃ tava vibhāti śaśāṅka-kānta muccaiḥ sthitaṃ sthagita-bhānukara-pratāpam। muktāphala-prakarajāla-vivṛddha-śobham prakhyāpayat trijagataḥ parameśvaratvam।31। ४. छत्रत्रय प्रातिहार्य हे प्रकाशपुंज भगवान! आपके | मस्तक के ऊपर जो तीन छत्र हैं वे तीन जगत् के स्वामित्व को प्रकट करते हैं। वे छत्र चन्द्रमा के समान ऊपर उठे हुए रमणीय श्वेत वर्ण वाले हैं, जिन्होने सूर्य की किरणों के आप (प्रताप) को भी रोक दिया है और मोतियों की झालरों के समूह से वे बड़े ही शोभायमान हो रहे हैं।

गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभागस् त्रैलोक्यलोक-शुभ-संगम-भूतिदक्षः। सद्धर्मराज-जय-घोषण-घोषकः सन् खे दुन्दुभि ध्वनि ते यशसः प्रवादि।३२। gambhīra-tāra-rava-pūrita-digvibhāgas trailokyaloka-śubha-saṅgama-bhūtidakṣaḥ। saddharmarāja-jaya-ghoṣaṇa-ghoṣakaḥ san khe dundubhi dhvani te yaśasaḥ pravādi।32। ५. देवदुंदुभीप्रातिहार्य आकाश में देवता दुन्दुभि बजाते हैं, तब उसके, सुंदर, गंभीर, उच्च शब्द स्वर से दसों दिशाएँ गूँज उठती हैं, उससे ऐसा अनुभव होता है मानो वह तीन लोक के प्राणियों को कल्याण-प्राप्ति के लिये आह्वान कर रही है और भगवान ही सच्चे धर्म का निरूपण करने वाले है। इस प्रकार सद्धर्म राजा की जयघोषणा करते है परमात्मा के यश को संसार में विस्तृत करती हुई आकाश में बजती है।

मन्दार-सुन्दर-नमेरू सुपारिजात संतानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरूद्धाऽ। गन्धोदबिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत् प्रपाता दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा।३३। mandāra-sundara-namerū supārijāta santānakādi-kusumotkara-vṛṣṭirūddhā'। gandhodabindu-śubha-manda-marut prapātā divyā divaḥ patati te vacasāṃ tatirvā।33। ६. पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य हे नाथ! आपके समवसरण अर्थात धर्मसभा में गन्धोदक की बूंदों से पवित्र मन्द पवन के झोंको से बरसने वाली देवकृत पुष्पवर्षा, बड़ी ही सुन्दर प्रतीत होती है। उसमें मन्दार सुंदर, नमेरु,सुपारिजात और सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के मनोहर सुगन्धित पुष्पों की दिव्य वृष्टि होती है। ये पुष्प जब आकाश से बरसते हैं तो ऐसा मालूम होता है, मानो आपके वचनों की दिव्य पंक्तियाँ ही बरस रही हों।

शुम्भत‌्प्रभावलय-भूरिविभा विभोस्ते लोकत्रय द्युतिमताम् द्युति-माक्षिपन्ति। । प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम्।३४। śumbhata‌prabhāvalaya-bhūrivibhā vibhoste lokatraya dyutimatām dyuti-mākṣipanti। । prodyad-divākara-nirantara-bhūri-saṅkhyā dīptyā jayatyapi niśāmapi soma-saumyām।34। ७. प्रभामण्डल प्रातिहार्य हे भगवान‌्! आपके भामण्डल की ज्योतिर्मयी प्रभा तीन जगत् के सभी ज्योतिष्मान् पदार्थों की ज्योति को भी लज्जित कर रही है जो उदित हुए सहस्त्रों सूर्यों के प्रकाश से अधिक प्रकाशमान होते हुए भी वह भामण्डल की सौम्यप्रभा, पूर्णमासी की शीतल चन्द्रिका को भी पराजित कर देती है। अर्थात् भामण्डल की प्रभा सहस्त्रों सूर्यों की प्रभा से अधिक होने पर भी किसी को संतान नहीं पहुँचाती है, प्रत्युत चन्द्रमा की चाँदनी से भी अधिक शीतलता प्रदान करती है।

स्वर्गापवर्गगममार्ग-विमार्गणेष्टः सद‌्धमर्म-तत्व-कथनैक-पटू-स्त्रीलोक्या: । दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व भाषा-स्वभाव-परिणाम गुणैः प्रयोज्यः।३५। svargāpavargagamamārga-vimārgaṇeṣṭaḥ sada‌dhamarma-tatva-kathanaika-paṭū-strīlokyā: । divya-dhvani-rbhavati te viśadārtha-sarva bhāṣā-svabhāva-pariṇāma guṇaiḥ prayojyaḥ।35। ८. दिव्यध्वनिप्रातिहार्य हे भगवन आपकी दिव्य ध्वनिविलक्षण गुणों से युक्त है, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताने वाली, तीन लोक के प्राणियों को सत्य धर्म का रहस्य समझाने में कुशल, स्पष्ट अर्थात् विशद् अर्थ वाली है और संसार की सभी भाषाओं में परिणत होने के गुण वाली होने के कारण अति विलक्षण है। सभी को अपनी भाषा में सरलता से समझ में आती है

उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुज्ज-कान्ती पर्युल्ल-सन्नख-मयूख-शिखाभिरामौ। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः पद् मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति।३६। unnidra-hema-nava-paṅkaja-pujja-kāntī paryulla-sannakha-mayūkha-śikhābhirāmau। pādau padāni tava yatra jinendra ! dhattaḥ pad māni tatra vibudhāḥ parikalpayanti।36। प्रभु की विहारचर्या हे जिनेन्द्र! विकसित नूतन स्वर्ण कमलों के समूह के समान दिव्य कान्ति वाले तथा सब ओर फैलने वाली नख-किरणों की ज्योति से अतीव सुन्दर लगने वाले आपके पवित्र चरण जहाँ-जहाँ टिकते है, वहाँ-वहाँ भक्त देवता पहले से ही स्वर्ण-कमलों की रचना कर देते हैं।

इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र! धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य। यादृक्-प्रभा दिनकृतः प्रहरतांधकारा तादृक् कुतो ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि।३७। ​itthaṃ yathā tava vibhūtirabhūjjinendra! dharmopadeśanavidhau na tathā parasya। yādṛk-prabhā dinakṛtaḥ praharatāndhakārā tādṛk kuto graha-gaṇasya vikāśino'pi।37। समवसरण विभूति अहो वीतराग देव! धर्मोपदेश देते समय जैसी आपकी दिव्य-विभूति होती है, वैसी समृद्धि अन्य देशों की नहीं होती है। क्योंकि अन्धकार को नाश करने वाली जैसी प्रचण्ड प्रभा सूर्य की होती है, वैसी प्रभा आकाश में चमकने वाले दूसरे ग्रह नक्षत्र, तारागणों की कैसे हो सकती है?

श्च्योतन्मदाविल विलोलकपोल-मूल मत्त-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम्। ऐरावताभमिभमुद्धत-मापतन्तम् दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ।३८॥ ścyotanmadāvila vilolakapola-mūla matta-bhramad-bhramara-nāda-vivṛddha-kopam। airāvatābhamibhamuddhata-māpatantam dṛṣṭvā bhayaṃ bhavati no bhavadāśritānām ।38॥ गजभय नाशक युवावस्था में बहने वाले मद से मलिन एवं चंचल गण्डस्थल पर मँडराने वाले मदोन्मत्त भौंरों की गुंजार से अत्यंत क्रुद्ध हुआ इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान महाविशाल मदमस्त हाथी भी यदि आक्रमण करे तो भी आपके आश्रय में रहने वाले भक्तजनों को कुछ भी भय नहीं होता है, अर्थात् वे निर्भय बने रहते हैं। आपका भक्त गज भय से भी विमुक्त रहता है।

भिन्नेभ-कुम्भ- गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त मुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमिभागः बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते।३९॥ bhinnebha-kumbha- gala-dujjvala-śoṇitākta muktā-phala-prakara-bhūṣita-bhūmibhāgaḥ baddhakramaḥ kramagataṃ hariṇādhipo'pi nākrāmati krama-yugācala-sañśritaṃ te।39॥ सिंहभय निवारक     जिसने दीर्घ भीमकाय हाथी के कुम्भस्थल का विदारण कर रक्त से सने हुए उज्जवल मोतियों के ढेर से भूमि-भाग को अलंकृत किया है, ऐसा भयंकर सिंह भी आपके चरण-युगलरूपी पर्वत का आश्रय लेने वाले भक्त के सामने ऐसा बन जाता है, मानो उसके पैर बाँध दिये गये हों, वह आपके भक्त पर आक्रमण नहीं कर पाता है, अर्थात् आपका भक्त सिंह-भय से भी विमुक्त रहता है।


रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम् क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतत्नम्। आक्रामति क्रम-युगेन-निरस्त-शंकस् त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुसः।४१। raktekṣaṇaṃ samada-kokila-kaṇṭha-nīlam krodhoddhataṃ phaṇina-mutphaṇa-māpatatnam। ākrāmati krama-yugena-nirasta-śaṅkas tvannāmanāgadamanī hṛdi yasya pusaḥ।41। भुजंग भय निवारक जिस पुरुष के हृदय में आपकी नामरूपी नागदमनी जडी है, वह पुरुष लाल चित्र वाले एवं मतवाले कोकिल कण्ठ के समान काले, क्रोध से फुफकार करते और फोन को ऊँचा उठाकर सामने झपटने-आते हुए भयंकर सांप को भी निःशक होकर लाँघता हुआ चला जाता है, अर्थात् आपका भक्त सर्प-भय से भी मुक्त रहता है।

वल्गन्तुरंग-गजगर्जित-श्रीमनाद माजौ बलं बलवता मपि भूपतिनाम्। उद्यदिवाकर मयूख-शिखापविद्धम् त्वत्कीर्तनात् तम इवाशु भिदा मुपैति।४२॥ valganturaṅga-gajagarjita-śrīmanāda mājau balaṃ balavatā mapi bhūpatinām। udyadivākara mayūkha-śikhāpaviddham tvatkīrtanāt tama ivāśu bhidā mupaiti।42॥ युद्ध भय निवारक    बलवान राजा की जिस सेना में घोडा हिनहिना रहे हों  और हाथी चिंघाड रहे हों, भयंकर कोलाहल हो रहा हो, ऐसी शत्रु राजाओं की सेना भी आपके नाम का उच्चारण करने से ऐसी छिन्न-भिन्न हो जाती है, जैसे सूर्य के उदित होते ही उसकी किरणों से रात्रि का अंधकार शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो जाता है, अर्थात् आपके भक्त को शत्रु-सेना का भी किंचित् मात्र भी भय नहीं रहता है।

कुन्ताग्रभिन्नगज-शोणित-वारिवाह वेगावतार तरणातुरयोध- भीमे । युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास् त्वत्पाद-पंकज वनायिणो लभन्ते।४३। kuntāgrabhinnagaja-śoṇita-vārivāha vegāvatāra taraṇāturayodha- bhīme । yuddhe jayaṃ vijita-durjaya-jeya-pakṣās tvatpāda-paṅkaja vanāyiṇo labhante।43। युद्ध विजेता हे जिनेश्वर! आपके चरण-कमल की सेवा करने वाले भक्तजन दर्जन शत्रु का मान मर्दन कर उस भयंकर महायुद्ध में विजय-वैजयंती फहराते हैं, जिसमें भालों की नोंकों से विदीर्ण हुए हाथियों के रुधिर प्रवाह के वेग को पार करने के लिये  योद्धागण अति आतुर रहते हैं। सच है, आत्मस्थ आत्माओं को शरीर से किंचित् भी मोह नहीं होता। अतएव वे जी-जान से लड़कर शत्रु का मानमर्दन करदें तो इसमें कौनसी बड़ी बात ह

अम्भोनिधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ। रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-याने-पात्रास त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति।४४। ambhonidhau kṣubhita-bhīṣaṇa-nakra-cakra pāṭhīna-pīṭha-bhaya-dolvaṇa-vāḍavāgnau। raṅgattaraṅga-śikhara-sthita-yāne-pātrāsa trāsaṃ vihāya bhavataḥ smaraṇād vrajanti।44। समुद्र भय निवारक हे जगन्नाथ! जिसमें विशालकाय भयंकर मछलियां, मगर और घडियाल मुँह बाये इधर-उधर लहरा रहे हैं और महाभयावनी वडवाग्नि अपना अत्यंत प्रचण्ड रूप धारण किये हुए हैं ऐसे तूफानी समुद्र में अत्यंत ऊँची उछलती विकराल तरंगों से जिनके जहाज डगमगा जाते हैं। आपका स्मरण कर वे भक्तगण निर्भया के साथ भयंकर तूफानी महासमुद को भी निर्विघ्न पार कर जाते हैं। अर्थात् आकस्मिक विपत्तियाँ भी आत्मस्थ होने से विलीन हो जाती हैं।

उदभूत-भीषण-जलोदर-भारभुग्नाः, शोच्यां दशा-मुपगताश्च्युत-जीविताशाः। त्वत्पाद-पंकज-रजोऽमृत-दिग्ध-देहा मत्यो  भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः।४५। udabhūta-bhīṣaṇa-jalodara-bhārabhugnāḥ, śocyāṃ daśā-mupagatāścyuta-jīvitāśāḥ। tvatpāda-paṅkaja-rajo'mṛta-digdha-dehā matyo  bhavanti makara-dhvaja-tulya-rūpāḥ।45। रोग-निवारक जो पुरुष भयंकर जलोदर रोग के भार से झुक गया है, वह भयंकर पीड़ा भोग रहा है। लगातार औषध-सेवन करते रहने पर भी उत्तरोत्तर रोग के बढ़ने से जिसने जीने की आशा भी छोड़ दी है, ऐसे अत्यंत दयनीय अवस्था को प्राप्त पुरुष भी यदि आपकी चरण-रज रूपी अमृत अपने शरीर पर लगाते हैं तो वे नीरोगी होकर कामदेव के समान सुन्दर शरीर वाले हो जाते हैं, अर्थात् आपके चरण-रज से असाध्य रोगी भी रोगी हो जाते हैं

आपाद-कण्ठ-मुरूश्रृखंल-वेष्टितांगा गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जङ्घाः। त्वन्नाम-मन्त्र-मनिशं मनुजाः स्मरन्तः सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति।४६। āpāda-kaṇṭha-murūśrṛkhanla-veṣṭitāṅgā gāḍhaṃ bṛhannigaḍa-koṭi-nighṛṣṭa-jaṅghāḥ। tvannāma-mantra-maniśaṃ manujāḥ smarantaḥ sadyaḥ svayaṃ vigata-bandha-bhayā bhavanti।46। बंधन विमोचक जो पुरुष पैरों से लेकर कंठ तक बड़ी-बड़ी मोटी साँकलों से बँधा हुआ है, जिसकी जाँघें बेटियों की तीक्ष्ण कोरों से छिल गई हैं, इस प्रकार जेलखाने में आबद्ध आजन्म कैद की सजा भोगने वाला पुरुष भी आपके नाम का निरंतर स्मरण करने पर अपने आप बन्धनों के भय से मुक्त हो जाता है।

मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम्। तस्याशु नाशमुपयति भयं भियेव यस्तावकं स्तवमिमं मति मानधीते।४७। matta-dvipendra-mṛgarāja-davānalāhi saṅgrāma-vāridhi-mahodara-bandhanottham। tasyāśu nāśamupayati bhayaṃ bhiyeva yastāvakaṃ stavamimaṃ mati mānadhīte।47। अष्ट भय निवारक हे प्रभु! जो बुद्धिमान पुरुष आपके इस स्तोत्र का निरंतर पठन-मनन करता है, उससे उन्मत्त हाथी, सिंह, दावानल, सर्प, संग्राम, समुद्र, जलोदर रोग और बन्धन जनित भय स्वतः डरे हुए की भाँति शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। सच यही है, आपकी परम गाढ भक्ति जब कर्मभय से ही मुक्त करके शिव सुख देने में समर्थ है, तब सांसारिक क्षणिक भय उसके सामने कैसे टिक सकते है? आठों भय स्वयं ही भयभीत होकर नष्ट हो जाते हैं।

स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र! गुणै र्निबद्धां भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम। धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता मजस्ं तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ।४८। stotra-srajaṃ tava jinendra! guṇai rnibaddhāṃ bhaktyā mayā rucira-varṇa-vicitra-puṣpāma। dhatte jano ya iha kaṇṭha-gatā majasṃ taṃ mānatuṅgamavaśā samupaiti lakṣmīḥ ।48। सर्व सिद्धि प्रदायक हे जिनेन्द्र देव! इस संसार में जो मनुष्य मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक प्रसाद. माधुर्य, ओज, आदि गुणों से युक्त माला का डोरे से गुथी हुई-रची हई मनोहर अक्षररूपी विचित्र फूल वाली सुन्दर रंग वाली कई तरह के फूलों सहित आपकी स्तुतिरूपी माला को कंठ में धारणकर अर्थात् कंठस्थ कर लेता है, उस उन्नत पुरुष का सम्मान अथवा स्तोत्र रचयिता आचार्य मानतुंग को स्वर्ग-मोक्ष रूपी लक्ष्मी-विभूति विवश होकर भक्ति की अधीनता को प्राप्त हो जाती है।

Recent Posts

See All
Shree Logassa Sutra

लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली ॥१॥ logassa ujjoyagare, dhammatitthayare jiṇe । arihante...

 
 
 
Shree Ratnakar Pachisi

મંદિર છો મુક્તિતણા, માંગલ્ય ક્રીડાના પ્રભુ! ને ઈન્દ્ર નર ને દેવતા, સેવા કરે તારી વિભુ ! સર્વજ્ઞ છો સ્વામી વળી, શિરદાર અતિશય સર્વના, ઘણું...

 
 
 
Shree Uvasaggaharam Stotra

उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्म-घण मुक्कं । विसहर विस निन्नासं, मंगल कल्लाण आवासं ।।1।। Uvasaggaharaṃ pāsaṃ, pāsaṃ vandāmi kamma-ghaṇa...

 
 
 

Comments


bottom of page